Wednesday 2 November 2016

"रौशन" दो दीये

"रौशन"
दो दीये अरमानों के
उस शहर में जलाना तुम
जहां तुम्हारे एहसास
पल रहे हैं, बढ़ रहे हैं



ह्रदय की अभिलाशायें
दूर देश में रच-बस जाने से मिट जाती नहीं
तुम दीये की बाती को
मन की आंचल से बनाना
ताकि उसके लौ से
तुम खुद को रौशन कर सको


ये अलग बात है
कि मां की हाथों से गुत्थे हुए मिट्टी के वो दीये
उस शहर में नहीं मिलेंगे
लेकिन …
तुम उस पल को महसूस करना
उस मिट्टी की खूशबू में खोना
जिसमें प्यार, स्नेह, और विजय की ऊर्जा है

सपनों का आंगन सजाना तुम
जहां तुम्हारे अपने
तुम्हें दुलार रहे हैं
और तुम्हारी आंखें बिना लजाये
शरारतों की ऐसी रंगोली बना रही है
जिसमें तुम्हारे अपनों के
सारे रंग समाये हुए हैं


तुम चाहो तो...
उस छत पर भी दीये जलाना
जहां कबूतरों का
खुला आशियां होता है
जिसके लिए दिवाली का कोई मतलब नहीं होता
लेकिन रोशनी किसी की जागीर ना बने
इस भ्रम को तोड़ना तुम
दो दीये समानता के
उस शहर में जलाना तुम




मैं तुम्हें इस बात के लिए नहीं कचोट रहा हूं
कि दूर शहर में तुम अपनों से दूर हो
बल्कि
तुम कमजोर ना पड़ो
अपनी भावनाओं से लड़ते-लड़ते
इसलिए एकता के दीये जलाना तुम

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